पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२०४

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तुथाऽध्याय बुद्धिवृद्धिकराण्याशु धान्यानि च हितानि च । नित्यं शास्त्राएयवेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान् ॥१६॥ यथार्यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति । तथातथा विजानाति विज्ञानं चास्यरोचते ॥२०॥ शीम बुद्धि के बढ़ाने वाले धन के सञ्चय कराने वाले और शरीर की सुख देने वाले शास्त्रों को और बंद के अर्थ जताने वाले शास्त्रों का भी नित्य दन्थे ॥१५॥ जैसे २ मनुष्य अच्छे प्रकार शास्त्र का अभ्यास करता है, वैसे २ शाम्ब को जानता जाता है और इस का विज्ञान रुचता जाता है ।।२०॥ (३० में से १ पुस्तक में यह श्लोक अधिक पाया जाता है.- शास्त्रस्य पारङ्गत्वा तु मयोभ्यस्तदस्यसेत् । तच्छास्त्र सबज भि चाधीत्य त्यजेत्पुनः ॥१॥ अर्थात् शास्त्र के पार को प्राप्त होकर भी बार २ अभ्यास करता रहे । उस शास्त्र को उज्वल करे न कि पढ़ कर फिर छोड़ दे॥ ऋषियहूं देवयज्ञं भूतयझं च सर्वदा । नय पिया च यथाशक्ति न हापयेत् ॥२१॥ एताने महायज्ञान्पज्ञ शास्त्रविदश जनाः। अनौहमानाः सततमिन्द्रियेप्वेव जुलति ।।२२।। स्वाध्यायोदि पञ्चयज्ञो को यथाशक्ति कभी न छोड़े ॥२१॥ काई यशशास्त्र के जानने वाले पुरुष इन पंच महायबो को (ब्रम चर्यके अभ्यासस) ब्रह्म चेष्टा से निरन्तररहित हुए पञ्चक्षानेन्द्रियो मेंही संयम करतेहैं ।