पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०२ मनुस्मृति भाषानुवाद ! वाच्चे के जुद्धति प्राणं प्राणे वाचं च सर्वदा । वाचि प्राणे च पश्यन्ता यजनितिमक्षपाम् ॥२३॥ ज्ञानवापर विश्रा यजन्त्येतर्मखेः सदा । ज्ञानमूला किमासेपा पर मन्तेशान्चक्षुपा ॥२४॥ कोई वाणी का पारण मे और प्राण का वाणी में हवन और इन्ही मे यज्ञ की अक्षय फलसिद्धि देखते हैं (अर्थात् प्राणा- आम और मौन धारण करते हैं) ॥२ज्ञानचक्ष से इन क्रियाओ, को मानमूलक जानने वाले दूसरे विष इन यज्ञो का शान से ही करते हैं रिसा अग्निहोत्रं च जुहुयादायन्ते युनिशोः सदा । दर्शन चाधमामान्ते पौर्णमासेन चैव हि ॥रशा 'सस्थान्ते नवसस्येप्टया अथर्वन्त द्विजोऽध्वरैः। पशुना त्वयनात्यानौ समान्ते सौमिकमजैः ॥२६॥ दिन और रात्रि के आदिमे नित्य अग्निहोत्र करे। अर्धमास के अन्तम श्रमावस्या और पूर्णमास यजन करे ॥२५॥ "नवीन अन्न की उत्पत्ति मे नवीन धान्य से नवसस्यष्टि करे ऋतुओ के अन्त में अध्वर याग करे और अयन के आदि मे पशु से याग करे और वर्ष के अन्तमें सोमयाग करे। ॥ (मेधातिथि के भाष्य में पाठ भेद भी है पशुताबयनस्यादौ । इस से भी यह नवीन प्रक्षेप संशयित होता है) ॥२६॥ 'नानिप्ट्वा नवसस्येप्टया पशुना चाग्निमान्दिनः । नपानमद्यान्मार्स वा दीर्घमायुर्जिजीविपुः ॥२०॥ नवेनानचिता हस्य पशुहन्येन चाग्नयः।