पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२०७

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२०४ मनुस्मृति भापानुवादः शक्तितोऽयचमानेभ्यो दातव्यं गृहमेधिना। संविभागश्च भूतेभ्यः कर्तव्याऽनुपरोधतः ॥३२॥ वेद विद्या की ममापि करने वाले और व्रतको सम्पूर्ण करने याले तथा श्रोत्रिय गृहस्थों का हव्य कव्य से पूजित करे और इन, से विपरीतो को नहीं ॥३१|| गृहस्थ यथाशक्ति पाक,न करने वाले. (सन्यासी वा ब्रह्मचारी ) का भिक्षा देवे और सम्पूर्ण जीवों को बिना रुकावट के जलादि भाग देवे ॥२॥ राजतो धनमन्विच्छेत्संगीदनम्नातकः क्षुधा । याज्यान्तेवासिनोवापि नवन्यत इति स्थितिः ॥३३॥ न सीदेस्नातको विप्रः क्षधाशक्तः कथंचन । न मोर्शमलब्ट्रामा भवेच्च विभवे सति ॥३॥ क्षुधा से पीडित स्नातक राजा से और यजमान वा शिष्य से द्रव्य की इच्छा करे अन्य से न मांगे। इस प्रकार शास्त्र मर्यादा है ॥३३।। स्नातक ब्राह्मण क्षया से पीडित कभी न रहे और धन- पास होने पर पुराना मैला वस्त्र न रक्खे ॥३४॥ क्लृप्तकेशनखश्मश्रुर्दान्तः शुक्लाम्बरः शुचिः। . स्वाध्याये चैवयुक्तः स्यान्नित्यमात्महितेषु च ॥३५॥' नैणवी धाग्येद्यष्टि सोदकं च कमण्डलम् । यज्ञोपवीतं वेदं च शुभे रोक्मे च कुण्डले ॥३६॥ केश नख दाढी मुन्डाये हुवे (ऐसी हजामत बनवाया करे) और इन्द्रियों का दमन करने वाला श्वेतवस्त्रधारी और पवित्र रहे और नित्य वेद पाठ तथा आत्मा का हित किया करे।। (यह प्राचीन