पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०६ मनुस्मृति भाषानुवाद रजसाभिप्ता नारी नरस्य छ पगच्छतः । प्रज्ञा तेजो बलं चक्षुरायुश्चैव ग्रहीयते ॥४१॥ तां विवर्जयतरतस्य रजसा समभिप्लुताम् । प्रज्ञा तेजावलं चक्षुरायुश्चैव प्रवर्धते ॥४२॥ रजस्वला स्त्री के पास जाने वाले पुरुप की प्रज्ञा. तेज, बल. आंख तथा आयु नष्ट होती है ॥४१॥ उसी (रजस्वला) के पास न जाने वाले की प्राण तेज बल, आंख की दृष्टि और आयु बढ़ती है (४ पुस्तका मे प्रज्ञा लक्ष्मीर्यशश्चम. पाठ है) ॥४२॥ मारनीयादायथा सार्थ नेनामीक्षेत चाश्नतीम् । क्षुवती जुम्भमाणां या न चासीना यथासुखम् ॥४३॥ नाञ्जयन्ती खकेने न पाम्यक्तामनावताम् । न पश्येत्प्रसवन्तीं प तेजस्कामा द्विजाचमः ॥४४॥ वेज चाहने वाला भार्या के साथ भोजन न करे इस को भोजन करते हुए भी न देखे तथा छीकती जम्माई लेती हुई और आराम से बैटी हुई को भी न देखे (इस से लब्जाम का भय है) 11I अपने नेत्रो में अजन करती हुई, विना कपड़ों नही तैलादि लगाती हुई, बच्चा जन्मती हुई को तेज की इच्छा करने वाला ब्राह्मणादि न देखे । (चार पुस्तकों और रामचन्द्र के टीके में ४४ से आगे यह श्लोक अधिक पाया जाता है :- उपत्य स्नातका विद्वान्नेक्षनग्ना परस्त्रियम् । सरहस्यं च सम्बाद परस्त्रीषु विवर्जयेत् ।] अर्थात् स्नातक विद्वान पराई नग्न स्त्री के समीप न जावे और