पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थोऽध्याय २०७ न देखें और पर स्त्रियों ने एकान्त नम्बाद वर्जित करे) ॥४ मानमद्यादेकयामा न नग्नः स्नानमाचरेत् । नभूत्रं पथि कुवीत न भस्मनि न गावजे ॥४॥ न फालरुष्ट न जले नचित्या न च पर्वते । न जीर्णदेवायनने न वन्मीक कढाचन ॥४६|| एक वन्त्र पहन कर भोजन न करे नहा स्नान न कर, मार्ग में गी में खरक में. 1241वत तथा जल में चिता और पर्यंत में, पुराने टूटे देव स्थान में, यज्ञशाला में और बमी में की -मूत्र न करे ॥४॥ न ससस्वप गर्तप न गच्छमापि च स्थितः । न नदीतीरमासाद्य ने च पर्वतमस्तके ॥१७॥ चाबग्निविग्रमादित्यमयः पश्यंस्तथैव गाः । न कनाचन कुर्वीत विरमृजरय विसर्जनम् ॥४८॥ रहते हुवे जानवरों के दिलों में, चलने हुवे, बड़े हुवे नदी के किनारे, पर्वत की चोटी पर ॥४७॥ वायु अग्नि चित्र, सूर्य , जल और गौवों का दन्यता हुआ कभी मल, मूत्र त्याग न करे ।।४८॥ तिरस्कृत्योचोन्काप्टरनोष्ठपत्रवणादिना । नियम्य प्रयत्ता पाचं मम्वीताङ्गोऽवगुण्ठितः ॥४६|| सूत्रोच्चारसमुत्स' दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । दक्षिणाभिमुखा रात्री सन्ध्ययोश्च यथा दिवा ॥५०॥ लकड़ी, ढला, पचा, घास आदि से छिप कर दिशा फिरे, पोले नहीं शरीर पर कपड़ा ओढ़ लेवे और गठकर बैठे।४५ दिन और