पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२११

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२०८ मनुस्मृति भाषनुवार दोनों सन्ध्यानो मे उत्तर की ओर मुख करके और रातको दक्षिण मुख होकर मल, मूत्र त्याग किया करे ।।५०।। छायायामन्धकारे या रात्रावहनि वा द्विजः । यथासुखमुखः कुर्यात्प्राणवायाभयेषु च ॥५१॥ प्रत्यग्नि प्रतिसूर्य च प्रतिसामोदकद्विजान् । प्रतिगा प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥५२॥ . बाया, अन्धकार, रात्रि वा दिन में (जिस मे दिशा का ज्ञान न हो) वा (व्यापादिकों से) प्राण के भय मे जैसे चाहे वैसे मुख करके मल मूत्र त्यागले ॥४२॥ अग्नि, सूर्य, चन्द्र, जल, ब्राह्मण आदि गौ और वायु इन के सम्मुख मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट होती है ।।२।। (जैसे स्वच्छ वस्त्र पर थोड़ी मलीनता बहुत प्रतीत होती है, वा अति स्वच्छ वस्त्र धारण करने वाले थोड़ा भी छोटा पड़ जाने से वस्त्र को मलिन और न पहरने योग्य समझते हैं, परन्तु साधारण लोग उतने मैले वस्त्रादि को मैला ही नहीं समझते। इसी प्रकार धर्मशास्त्र के अनुसार चलने वाले लोगों को ही उसके विपरीत चलने की हानि वा ग्लानि प्रतीत हो सकती हैं, सब को नहीं। और जो लोग जिस प्रकार से सदा रहन सहन करते हैं उस से नई या विरुद्ध वा भिन्न रीतिसे करने में उन्हे ही कष्ट होता है अन्यों को नहीं। जैसे अंगरेजी पाट (पाखाने) मे इस देश वालो को कष्ट होता है । मलमूत्रादि करने मे जहा २ किसी को कोई भी हानि हो वहां न करे। जो र स्थान वा ढह धर्मशास्त्र में यहां चतलाये हैं वे उपलक्षणमात्र हैं। इस से अन्यत्र भी हानि देखे तान करे। और इन स्थानों में भी करने से लाभ और न करने