पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२१२

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चतुर्थाऽध्याप २०९ मे हानि हो तो इस मर्यादा को चाहे न माने । यही विचार ५१ वें श्लोक का मुख्य करके है। ब्राह्मणादि के सामने भूत्रादि करने से उन का अपमान और अपने में धृष्टतानि दीपोत्पत्ति तथा वायु आदि की परीक्षा करते एक काल में दो कामों के करने से विघ्न और शौच का ठीक २ न होना, बवासीर और मूत्रकृच्छादि रोगो की वृद्धि सम्भव है । इत्यादि स्वयं विचारते रहना चाहिये ।।२।। नाग्नि मुखेनापधमेनग्न नेक्षेत च स्त्रियम् । नामेध्यं प्रक्षिपदग्नौ न च पादौ प्रतापयेत् ॥५३॥ अधस्तानोपदम्याच न चैनमभिलंधयेत् । न चैनं पादतः कुर्यान्न प्राणायाधमाचरेत् ॥५४॥ आग को मुख से न कृके और नही स्त्रीको न देखे, मल मूत्र आग में न डाले और पैरों को आग पर न तपावे ||३|| (चारपाई श्रादिक) नाचे आगन धरे और इस (आग) कान लांचे और पैरों को आग पर न रखे और जीवों को पीड़ा होने वाला कर्म न करे ॥५४॥ स्नीयात्संधिवेलायां न गच्छेनापि संविशेन् । न चैव प्रलिखेभृमि नात्मनेापहरेत्स्रजम् ।।५।। नाप्पु मूत्रं पुरीष या ष्टीवनं वा समुत्सृजेत् । अमेध्यालचमान्यद्वा लोहित वा विगोण वा ॥५६॥ सन्ध्याकाल में भोजन, शान यात्रा न करे पार न भूमि पर लकीर खींचे'और पहनी हुई माला को न निकाले ॥१५॥ मूत्र, मैल और थूक वा मलमूत्रयुक्त वस्तु, रक्त और विष मी जल में नडाले ॥५॥