पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२१३

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२१० मनुस्मृति भाषानुवाद नैकः स्वपेच्छ्न्यगेहे श्रेयांस न प्रवाधयेत् । नादक्ययामिभापेत यज्ञं गच्छेन बाऽवृतः ॥५७॥ अग्न्यागारे गवां गोटे ब्राह्मणानां च सन्निधौ । स्वाध्याये मोजने चैत्र दक्षिणं पाणिमुद्धरेत् ॥५॥ सूने मकान में अकेला न सोने, अपने से बड़े का (सावे हुये) न जगावे, रजस्वला से न बोले और विना धरण किये यज्ञ में न जाये। (५७चे के आगे ३ पुस्तको में यह श्लोक अधिक है:- [एका स्वादु न भुञ्जीत स्वार्थमेको न चिन्तयेत् । एक न गच्छेदध्वानं नैका सुप्तेषु जागृयात् ॥१॥ अर्थान् अकेला स्थाइ पार्थ न खावे, न अकेला स्वार्थ की चित्ता करे । अकेला दीर्घयात्रा न करे, सब के साते हुवे अकेला न जागे) ॥५४॥ यज्ञशाला गोशाला तथा बामणों के समीप वेद के पढ़ने और भोजन मे दाहिना हाथ उठावे ॥५८।। नवारयेद् गां धयन्तीं न चाचक्षीत कस्यचित् । न दिवीन्द्रायुधं दृष्ट्वा कस्यचिदर्शयेद् बुधः ॥५६॥ नाधार्मिके बसेद् ग्रामे न व्याधिबहुनेमशम् । नैकः प्रपद्येतावानं न चिरं पर्वते वसेत् ॥६॥ (जल) पीती गायको न हांके और न दूसरेको वतावे, आकाश मे इन धनुप देख कर किसी को न दिखावे (आंख की हानि है) ५९|| अधर्मी ग्राम और जहां वहत बीमारी हो वहां न रहे. अकेला मार्ग न चले और पर्वनपर बहुत काल निवास न करे ।६० न शूद्रराज्ये निवर्गम्भाधाकिजनावृते ।