पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२१४

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चतुर्थाऽध्याय न पापण्डिगणाक्रान्त नापसृप्टेऽन्त्यजैर्नृभिः॥६१॥ न भुञ्जीताद्धृनस्नेहं नातिसौहित्यमाचरेत् । नातिप्रगे नातिसायं न सायं प्रातराशितः ||६२|| शों के राज्य में निवास न करे. अधार्मिक पुरुषों से घरे हुवे और पापण्डियों के वास किये हुवे तथा चाण्डालों से भरे हुवे देश में भी न बसे ।।३१। जिसकी चिकनाई निकाल ली हो उसका न खावे (जैसे खल) अति दृषि न करे, उदय तथा अन्त काल के समीप भोजन न करे, प्रातः काल अति तृप्त हुआ सायंकाल में भोजन न करे ॥६॥ न कुर्वीच्या चेष्टां न वार्यञ्जलिना पिवेत् । नास 'भक्षयेद्धच्यान जातु स्यात्कुतूहली ॥६॥ मनवेदथवा गायेन बादित्राणि बाइयेत् । नास्कोटक्षेत्र च वेडेन न रका विगवयेत् ॥६॥ निष्फल कन न करे, अखली से पानी न पीत्रे । (माकादि) मक्ष्य को गोल में रख कर भोजन न करें और कमीच वाते न करें |शान नाचे नगान करे, बाजी का न बनावें, तानी नवजावे और तुतलाकर न वाले और बहुत प्रसन्न होकर (गधेका सा) कुशन्द न करें। न पादौ घावयेत्कांस्ये कदाचिदपि भाजने । न मिनभाण्डे भुञ्जीत न भावप्रतिदूषिते ॥६५॥ उपानहौ च वासश्च धृतमन्यैर्न धारयेत् । उपवीतमलङ्कारं वनं करकमेव च ॥६६॥ i