पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२१६

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चतुर्थाऽध्याय २१३ अर्थात् शोभा का इच्छक मिट्टी के पात्र में न खाया करे।।६।। मिट्टी के ढल को न मसला करे, नखो से तृणो को न काटा करे व्यर्थ काम न करे और आगामी काल में दुःख का देने वाला काम न करे | लाष्टमीवणच्छेदी नखखादी च यो नरः । स विनाशं बजत्याशु सूचका शुचिरेव च ॥७१॥ न विगह्य कथा कुर्याद् बहिन्यिं न धारयेत् । गवां च यानं पृष्टेन सर्वथैव विहितम् ।।७२।। ढलेको मसलने वाला व्रण का छेदने वाला, और नखों के चवाने के अभ्यास वाला मनुष्य शोध नाश को प्राप्त हो जाता है और चुगल बार तथा अपवित्र मी ॥७१|| उदण्डता से बात नकरे. माला को बाहर धारण न करे और बैल की पीठ पर सवारी न करे। यह सर्वथा ही निन्दित है ॥२॥ अद्वारेण च नासीयाग्रामवा वेश्म वावृतम् । रात्रौ च वृक्षमूलानि दूरतः परिवर्जयेत् ॥७३॥ नाक्षः क्रीडेकदाचित्त स्वयं नोपानहौ हरेत् । शयनस्था न भुञ्जीत न पाणिस्थं न चासने ||७४। घिरे हुवे नगर या मकानमें बिना दरवाजे के न आवे (अर्थात् दरवाजे से जावे दीवार कूद कर न जावे) और रात को पुत के नीचे न रहे ।।७३शा कमी जुबा न खेले अपने जूतों को हाथ से उठा कर न चले शय्या पर या हाथ में लेकर वा पासन पर रख कर न (किन्तु पात्र में रख कर) खावे ॥४॥ सर्व च विलसंबद्ध नाबादस्वमिते खौ ।