पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२१७

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मनुस्मृति मापानुवाद नचनग्नः शयीतेह नचाच्छिष्टः क्वचिद्मजेदा।७५। या पादस्तु भुञ्जीत नाईपादस्तु संविशेद । बाईपादस्तु भुजाना दीर्घमायुस्वाप्नुयात् ॥७६॥ सूर्य के अस्त होने पर तिलयुक्त सघ पदार्थों का भोजन न करे और नगा न साव और झूठे मुह कहीं न जावे {{VAll गीले पैर भोजन करें किन्तु गीले पैर सावे नहीं । क्योंकि गीले पैर भोजन करने वाला दीर्घायु पाता है ॥६॥ अचक्षुर्विषयं 'दुर्ग न अपयेत कहि चित् । न विएमूत्रमुदीक्षेत न बाहुम्या नदी तरेत् ॥७७|| अधितिष्टेन केशांस्तु न मस्मास्थिकपालिकाः । न कर्षासास्थि न तुपान्दीर्घमायुर्जिजीविषु १७८ll . आंखो से जो दुर्ग नहीं देखा वहां कभी न आवे और मल सूत्र को न देखें और पाहु से नदी को न तिरे || बहुत दिन जीने की इच्छा वाला केश भस्म हड्डी खपरों के टुकड़े कपास की मांग और भूसे पर नवैठे ॥८॥ न संवसेच्च पतितर्न चाण्डालैर्न पुल्कसैः। । न मूखैनविलिप्तश्च नान्यैर्नान्त्यावसायिभिः 11७६।। पतितों के साथ न रहे । चाण्डालों के साथ तथा निपाद से शूद्रा में उत्पन्न हुवे पुल्कसों के साथ भी न घसे और मूर्ख तथा धनगर्वित और अन्त्यज और निपादत्री में चाण्डाल से उत्पन्न हुवों के साथ भी न बसे ।। (७९ वें से आगे यह श्लोक १ पुस्तक में अधिक पाया जाता है