पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२१८

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चतुर्थोऽध्याय [न कृतघ्नरयुक्तैन महापातकान्वितः । न दस्युमिनाशुचिभिर्नाऽमित्रेश्च कदाचन ।।] अर्थात् कृतघ्न, आलसी, उद्योगहीन, महापातकी, दस्यु अपवित्र और शत्रुओ के साथ कभी वास न करे ) ॥७९॥ "न शुधाय मतिं दद्यानोच्छिष्ट न हविष्कृतम । न चाम्योपदिशद्धर्भ न चास्य व्रतमादिशेत् " ॥८॥ शूद्र को बुद्धि और उच्छिष्ट और हविष्कृत अर्थान् होमशेष का भाग न दें। और उसका धम उपदेश न करे और व्रत भी न बतावे ।। (एक पुस्तक में अर्ध श्लोक अधिक है-- | अन्तरा बामणं कृत्वा प्रायश्चिचं समादिशेत् ।। अर्थात् शूद्र को प्रायश्चित बताना हो तो ब्राह्मण को बीच में करले) ॥oll

  • यो खन्य धर्ममाचष्टे यश्चवादिशति व्रतम् ।

सोऽसंवृतं नाम तमः सह तेनैव मज्जति ।।८।।" न संहताभ्यां पाणिभ्यां करायेदात्मनः शिरः । न स्पृशेच तदुछिटो न च स्नायाद्विना ततः ॥२॥ "जो इस (शुद्ध) को धर्मोपदेश और प्रायश्चित्तका उपदेश करे वह उस शुद्र के साथ "असंवृतास्य' बड़े अन्धकार वाले नरक में गिरता है ।।" (दशमाध्याय १२६ । १२७ मे शूद्र के विषय में (न धर्मान्प्रतिपंधनम । धर्मेप्सवन्तु धर्ममा सना वृत्त- मनुसिता.) कहा है, जिम से शुद्धोका भी धर्मात्मा धर्मज सदाचारी होना पाया जाता है । और बिना उपदंश धर्म ज्ञान असम्भव है। इसलिये ये ८०1८१ श्लोक किसी शूद्र-दूपी के मिलाये प्रतीत होते हैं जो कि उक्त दशमाध्याय से विरुद्ध हैं और आगे २१ नरक