पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२२०

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चतुर्थाऽध्याय एतद्विदन्ता विद्वांस ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः । नराज्ञः प्रतिगृह्णन्ति प्रत्य श्रेया मित्रांक्षिणाश मेश का पकड़ना और मारना ये दो काम शिर में न करें। शिर मैं वेल लगाकर अन्य किमी अङ्ग फोन वे ॥३॥ बिना क्षत्रिय से उत्पन्न राजा से दान न लंबे सूना (जीवों के मारने की जगह), गाड़ी आदि तथा कलालग्न से वृत्ति करने वालों और बहुरूपियों के भी (धन को ग्रहण न करें) ||८४ दश सना चाले के पराबर एक गाड़ी वाला है और इन इस के बराबर एक कलाल, और दम फलानों के समान एक वेषधारी दस पंप वालों के घरावर एक उक्त अधर्मी राजा (अर्थान् उत्तरोनर अधिक निपिद्ध) हैं ॥५दस हजार जीवों को मारने का अधिष्ठाता सौनिक कहाता है। उन राजा उसके बराबर का है। इस लिये इस का प्रतिग्रह पर है (अत एव न लें) |शा जो कृपण और शास्त्र का उलंघन करने वाले राजा का प्रतिग्रह लेता है वह क्रम से इन इक्कीस नरका को जाता है । वामित्र १ अन्वतामिन्न २ मा रौरव ३ रोग्य ४ नरक ५ कालमूत्र ६ महानरक ७ ||४|| सजीवन ८ महावीचि १ तपन १० संप्रतापन ११ मंघात १२ सकाकाल १३ कुहमल १४ प्रतिमूर्तिक १५ १६८९|| लोहशंकु १६ ऋजीप १७ पन्धान १८ शाल्मली नही १९ असिपत्रवन २० और लाइनारक २१ (इन इक्कीम नरको स्थान विशेषों वा देश विशेष का पाता है)।९। यह प्रतिमह नाना प्रकार के नरकों का हेतु है। ऐसा मानने वाले विद्वान् वेद के जानने वाले और परलोक में कल्याण की इच्छा करने वाले ब्रह्मवादी ब्राह्मण ऐमे राजा का प्रतियह नहीं लेते॥ (८४ से ९१ तक ८ श्लोक भी प्रक्षिप्त से जान पड़ते हैं। एक २८