पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृति भाषानुवाद तो इनकी संस्कृत शैली मनु के सी नहीं । दूसरे ५ वे श्लोक का पाठ २४ पुस्तकों में तो यही मिलता है जैसा मूल में छपा है परन्तु ६ पुस्तको मे -(दशध्वजसमा वेश्या घशवेश्यासमा तृप.) पाठ भेद है। तीसरे राजा और पहियोंदार गाड़ीसे जीविका करनेवाले वैश्य. इनको खटीकों और कलालों तथा वेश्याओं के समान समझना और इससे भी नीच समझना चिन्त्य है । और ८५ चे श्लोक के "प्रतिमूर्तिक" नरक का नाम ८ पुराने लिखे पुस्तकों में "पूतिमू- त्तिक' पाया जाता है। जिससे भिन्न र पुस्तकों में भिन्न २ पाठ भी संशय का हेतु है। इन तथा अन्य हेतुओ से हमने पहले तीन थार के एडीशनों (थापा) में प्रशिप्त लिखा था परन्तु अब चौथी धार उसलिये प्रक्षिप्त नहीं रक्खा कि स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी ने भी संम्कारविधि गृहाश्रम प्र० मे श्लोक ८५ माना है और नरक योनियों के नाम प्रायः मनु के माननीय श्लोकों में भी आये है। अत हमने अब मान लिया है परन्तु ऊपर लिखे कारणों से संदेह- युक्त श्रव भी है) ॥९॥ ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत धमार्थों चानुचिन्तयेत् । कायक्लेशांश्च तन्मूलान्वेदतत्वार्थमेव च ॥२॥ प्रात दो घड़ी रात से उठे और धर्म अर्थ का चिन्तन करे। उनके उपार्जन के शरीर क्लेशों को समझे और वेदतत्वार्थ को भी सोचे ॥१२॥ उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः । पूर्वा सन्ध्यांजपंस्तिष्ठेत्स्वकाने चापरां चिरम् ॥१३॥ ऋषयो दीर्घसंभ्यास्वाद् दीर्घमायुरबाप्नुयुः । प्रायशश्च क्रीति च ब्राह्मवर्चसमेव च ॥een