पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२२३

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मनुस्मृतिभापानुषाह २२० न निशान्ते परिश्रान्ता ब्रह्माधीत्य पुनःस्वपेन।।६६|| यथादितन विधिना नित्यं छन्दस्कृतपठेत् । अमछन्दस्कृतं चैव द्विजो युक्तोसनापदि ॥१०॥ अस्पष्ट न पढे और शूभे के पास बैठ कर न पढ़ा करे और प्रमात काल पढ़ कर थका हुवा फिर शयन न करे ।।१९।। यथोक्त विधि से नित्य गायत्र्यादि जन्दा से युक्त मन्त्र पढे और द्विजमात्र अनापचिकाल मे साधारण वेदपाठ और छन्दोयुक्त मन्त्र नियम पूर्वक पढ़ा करे ॥१०॥ इमानिस्पमनध्यायानधीयानो विवजेयेत् । अध्यापनं च कुर्वाणः शिष्याणां विधिपूर्वकम्।।१०१॥ कर्णश्रवे निजे रात्री दिवा पांसुसमूहने । एतौ वर्षास्वनध्यायावध्यायज्ञाः प्रचलते ॥१०२॥ इन' आगे कहे अनध्यायों को सर्वदा याविधि से पढ़ने वाला और शिष्यों को पढ़ान वाला (गुरु) छोड़ दवे ॥१०१।। रात्रि में कान मे शब्द करने वाले वायु के चलते हुवे और दिन मे गर्द उड़ाने वाले वायु के चलते हुवे, ये वर्षा ऋतु मे दो अनध्याय स्वाध्यायज्ञ (मुनि) कहते हैं ॥१०॥ "वियत्स्वनितवर्षेषु महोल्कानां च संप्लवे । आकालिकमनध्यायमेवेषु मनुरजवीत् ॥१०॥" एतास्त्वम्युदितावघायदा प्रादुष्कृताग्निषु । तदा विद्यादनध्यायमन्तौ चाम्रदर्शने ॥१०४।। विजुली गरजते हुवे वर्षा मे और उल्काओं के गिरने मे अन ध्याय उस समय तक करें जिस समय तक ये उत्पात पावर्षा होते