पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२२५

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मनुस्मृति भाषानुवाद ' उनके मध्यरारे च विरपूत्रम्य विसर्जन । उच्छिष्ट' श्राद्वभुक्चय मनमाऽपि न चिन्तयेत् ।।१०।। प्रतिगृह्य द्विजो विद्वानकारिष्टम्य कंतनम् । न्यई न कीर्तयज्ञम राज्ञो राहोश्च सूतकं ॥११०॥ "जल और मध्य रात्रि में और मलत्र करने के समय और भोजनादि करके झूठे मुंह और श्राद्ध में भाजन करके वेद को मन में भी याद न करे ।।१०।। विद्वान् ब्राह्मण एकोद्दिष्ट श्राद्ध का निमन्त्रण ग्रहण करके तीन दिन वेद का अध्ययन न करे और राजा के (पुत्रजन्मादि के) सूतक तथा राह के सूतक मे तीन दिन अनध्याय करे ॥११॥ "याग्देकानुदिष्टस्य गन्धोलेपश्च तिष्ठति । विप्रस्य विदुषो देहे तावद् ब्रह्म न कीर्तयेत् ॥११॥ शयान. प्रौढपादश्च कृत्वा चवावसक्थिकाम् । नापीयीतामिपं जग्थ्वा स्तमानाद्यमेव च ॥११॥" जब तक एकादिष्ट का देह में गन्ध और लेप रहता है विवान् ब्राह्मण तब तक वेद न पढ़े ॥११शा लेटा हुआ और पैरों को ऊंचा किये. वैठनेमे दोनों पैरों को भीतर की ओर मोड़े हुवे, मांस तथा सूतकियों का अन्न भोजन करके भी न पढ़े ॥११२||" 'नहारे पाणशब्दे च संध्ययारेव चाभयो । अमावास्याचतुर्दश्या पौए माम्यष्टकासु च ॥११॥ अमावास्या गुरु इन्ति शिष्यं हन्ति चतुर्दशी । ब्रह्माऽष्टकापौर्णमास्यौ तमात्ता परिवर्जयेत् ।।११४॥" कुहर में और ब्राह्मणों के शब्द में तथा दोनो सन्ध्यायों में अमावास्या वथा चतुदर्शी और पूर्णमासी और हेमन्त शिशिर की कृष्ण अष्टमी मे नपढ़े ॥११३।। क्योंकि अमावस्या (को पढ़ने में) था