पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२२६

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चतुर्थाऽन्याय २२३ गुरुको नष्ट करती है और चतुर्दशी शिष्य को और वेदको अटमी पौर्णमासी नष्ट करती हैं ।।११।। पांसुवर्षे दिशादाहे गोमायुविरुने तथा । श्वखरोष्ट्र च रुवति पंक्तौ च न पठेद् द्विजः।।११५॥ नाधीयीत श्मशानामो अामान्ते गावजेपि वा। "वसित्वा मैथुनं वासः भाद्विकंप्रतिग्रह्य च ॥११६॥ धूल अपने और दिशाओं के जलने और सियारों के चिल्लाने और कुत्ता, इंट, गये के शब्द करने और पनियों में दिन वेदन पढ़ा करे ॥११५|| श्मशान और ग्राम के समीप तथा गौशाला में न पड़े, और नैथुन समय के बत्रों को पहन कर और अद्वान्न को भोजन करकं न पढ़े ॥११॥ 'प्राणि वा यदि वाऽप्राणि यत्किचिछाद्धकं भवेत्। तदालभ्याप्यनध्याय पाण्याम्यो हि द्विज स्मृत" ॥११॥ चौरेरुपप्लुते प्रामे मंत्रमें चाग्निकारिते। आकानिकमनध्यायं विद्यात्साह तेषु च ॥११॥ "श्राद्धसम्बन्धी पशुवा शाकाटि को हाथ में काट कर बनार कर न पढ़े। क्यों कि ब्राह्मण "पाण्याम्य" (अर्थात् हाय ही हैं मुख जिसका) कहा है ॥११७|| चोरों के उपद्रवमे प्राममे, और मकान इत्यादि जलते समय में पूर्वोक्त आकालिक अनध्याय नाने और 'संपूर्ण श्रद्मुत कमों के होने में भी ॥११८।। उपाकर्मणि चोत्सर्गे त्रिरात्रं क्षेपणं स्मृतम् । अप्टकासु वहोरात्रमत्वन्तासु च रात्रिषु ॥११६|| नाधीयीवाश्वमारूढो न वृक्षं न च हस्तिनम् । -