पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२२८

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चतुर्थाऽध्याय २२५. पितरों का इस कम से वर्णन नहीं है जैसा श्लोक में बताया जाता है इस लिये यह वेद विरुद्ध है] ||१४|| एतद्विदन्तो विद्वांसस्त्रयीनिष्कर्षमन्वहम् । क्रमतः पूर्णमम्यस्य पश्चादमधीयते ॥१२५|| पशुमण्डकमार्जारश्वसर्पनकुलाखुभिः । अन्तरागमने विद्यादनध्यायमहर्निशम् ॥१२६॥ इस प्रकार जानने वाले विद्वान् प्रतिदिन गायत्री, भोरम और व्याहृति इस वेद के सार का क्रमपूर्वक प्रथम जप कर पश्चात् वः को पढ़ते हैं ।।१२५॥ वैल इत्यादि पशु मेंढक विल्ली. कुत्ता, सांप, नेवला चहा ये पढ़ते समय (गुरु शिष्य ) के बीच में होकर निकल जावें तो दिन रात्रि अनध्याय करे ।। (पशु आदि सदा मनुष्योंसे डरते और बैठे मनुष्यों के बीच में नहीं निकलसे हैं और जब निकलते हैं तो कुछ उपद्रव और अपवित्रता हो जाती है इत्यादि कारण हैं । और अगलेश्लाकमे मनु जी ने मय अनध्यायों को दो बातों के अन्तर्गत कर दिया है अथान एक तो जब २ पढ़ने के स्थान में कोई वाह्य विघ्न हो दूसरे जब २ आत्मा में अप्रता आनावे ॥१२६|| 'द्वावे वर्जयोनत्यमनध्यायो प्रयत्नतः । स्वाध्यायभूमि च शुद्धामात्मानं चाशुचिं हिजो१२७ अमावास्यामष्टमी च पौर्णमासी चतुर्दशीम् । ब्रह्मचारी भवेनित्यमपृतौरनावको द्विजः ॥१२८|| ( वस्तुतः ) दो ही अनध्याय सर्वदा यापूर्वक छोड़े। एक पढ़ने की अशुद्ध जगह और दूसरे आप पढ़ने वाला द्विज अपवित्र २८