पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२३३

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२३० मनुस्मृति भापानुवाद का विना निगिन्तन छुवे ॥१४॥ मजलाचारयुक्तः स्यात्प्रयतामाजिनेन्द्रियः। जपेन्श जुहुयाच्चैव नित्यमग्निमतन्द्रितः ॥१४॥ मङ्गलाचारयुक्तानां नित्यं च प्रयतात्मनाम् । जपना जुनां चैव विनिपातो न विद्यते ॥१४६. शुभाचारयुक्त, शुचि तथा जितेन्द्रिय रहे। सर्वदा पालम्य रहित होकर जप और अग्निहोत्र करे ।।१४।। शुभ श्राचारयुक्त और सर्वदा पवित्र रहने वाले और जप तप तथा होम करने वालों का उपद्रव (रोगा.) नहीं होता ।।१४६|| धेटमेवाभ्यसेनित्यं यथाकालमनन्द्रितः । तं वस्याहुः परधर्ममुग्धमान्य उच्यते ॥१४॥ वेद.म्यासेन सतत शान तपसव च । अद्रोहेण च भूतानां जाति स्मरति पविकीम् ।१४८ सर्वदा आलस्परहित होकर यथावसर बेत ही को पढे । क्योकि यह इसका परमवन कहा है और दूसरा धमे इससे नीचे है ।१४५ निरन्तर वेदाभ्याम करने, शुचि रहन तप करने और जीवो के माथ द्रोह न करने से (अपने) पूर्व जन्म का जान जाता है ।१४८ पौरिकों संस्मरजाति ब्रा याभ्यसते पुनः । प्रम भ्यासेन चाजसमनन्तं सुखमश्नुते ॥१४६|| सावित्रा शान्तिरामाश्च कुर्यात् पर्वसुनित्यशः । विश्चैवाष्टकाम्व. नित्यमन्वष्टकासु च ॥१५०|| . पूर्व जन्म को स्मरण करता हुवा पुन नित्य वेद ही का