पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२३६

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चतुर्थाऽध्याय सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥१६॥ जोर की दूसरे के आधीन है उन २ को यत्न से छोड़ देवे और जोर अपने आधीन है, उनका यत्न से करे ।।१५९।। दूसरे के श्राधीन होना ही सम्पूर्ण दुःख है और स्वाधीनता ही सम्पूर्ण मुख है। यह सुख दुःख का मंक्षिा लक्षण जान ॥१०॥ यत्कर्म कुर्वतास स्यान्परितोपोन्तरात्मनः । तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ॥१६१॥ आचार्य च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम् । न हिंस्याबाह्मणान्ग.श्चसर्वाश्चर नपस्विनः ॥१६२॥ जिस कर्म करने से इम (कर्म करने वाले पुरुष) का अन्तरा म. प्रसन्न हो वह कर्म यत्नपूर्वक करे और इसके विपरीत कमों को छोड़ द ॥१६१|| प्राचार्य वेद की व्याख्या करने वाला, पिता, माता, गुरु, ब्राह्मण, गौ और सम्पूर्ण तपस्वी, इनको न मारे (अन्य प्राणियों की अपेक्षा ये अधिक उपकारक होने से विशेष है) ॥१६॥ नास्तिका वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम् । व दम्मं च मानं च क्रोधं तैच्ण्यं च वर्जयेत् ।१६३। परस्य दण्ड नोद्यच्छेत्क्र द्धोनैव निपातयेत् । अन्यत्र पुत्राच्छिम्यादा शिष्टयर्थ वाडयेत्त तौ ॥१६४॥ नास्तिकता और वेद की निन्दा तथा देवतों की निन्दा, वैर, दम्भ, अमिमान, क्रोध और तेजी छोड्दे ॥१६शा दूसरे के मारने को क्रोधयुक्त हुआ दण्डा न उठावे और (दूसरे के ऊपर) लाठी न ३०