पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२३७

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मनुस्मृति भाषानुवाद फेंके परन्तु पुत्र और शिप्य को छोड़कर, क्योंकि इनका वो शिक्षा के लिये नाड़ना करे ही ॥१६॥ बामणायावगुयर दिजातिबंधकाम्यया । शतं वर्षाणि तामित्र' नरके परिवर्तते ॥१६॥ ताडयित्वा तृणेनापि संरम्मान्मतिपूर्वकम् । एकवितिमाजातीः पापयोनिषु जायते ॥१६६।। प्राणघात के विचार से ब्राह्मण को दण्डादि उठाने ही से द्विजाति सौ वर्ष तामित्र-अन्धनरक में फिराया जाता है ।।१६।। प्रोध से नृग द्वारा भी बुद्धि पूर्वक मारने से २१ पाय योनियों में जन्मता है ॥१६॥ अयुध्यमानस्योत्पाद्य ब्राह्मणस्यासगङ्गतः । दुःखं सुमहदाप्नोति प्रत्याऽप्राज्ञनया नरः ॥१६७|| शोणितं याचनः पामगृहाति महीतलात् । तावतोऽन्दानमुनान्यः शोणितोत्पादकाश्यते ॥१६॥ न लड़ने वाले ब्राह्मणके शरीर से अजान से रक्त निकाल कर मनुष्य मरकर जन्मान्तरमे बडा दुःख पाता है ।।१६७(शास्त्रादिक मारने से निकला हुआ ब्राह्मण के शरीर का) रुधिर, जितने पृथ्वी कं धूल के अणुओं को शोपता है उतने वर्ष पर्यन्त मारने वाला अान्या (कुत्ते आदि) से मरकर जन्मान्तर में खाया जाताहै।१६८। न कदाचिद् द्विने तस्माद्विद्वानयगुरेदपि । न ताडयत्त णेनापि न गात्रात्स्रावयेदसृक् ॥१६६॥ अधार्मिका नरो योहि यस्य चाप्यनृतं धनम् ।