पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२३८

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चतुर्थाऽध्याय २३५ हिंसारतश्च या नित्यं नेहासी सुखमेधते ॥१७॥ इसलिये द्विज के मारने की कमी लाठी भी न उठावे और न तृणादि से मारे और न शरीर से रक्त निकाले ॥१६॥ अधर्म करने वाला और जिस के असत्य ही धन है और जो नित्य हिसा करने में रत रहता है वह इस लोकमे सुरवपूर्वक नहीं बढता ।१७७॥ न सीदपि धर्मेण मनोधर्म निवेशयेत् | अधार्मिकाणां पापानामाशुः पश्यविपर्ययम् ॥१७१।। नाधर्मश्चरिता लोके सबः फलति गौरव । शनैरावर्तमानस्तु कर्तु मूलानि कुन्त त ॥१७२।। अधर्म करने वाले पापियों को शीघ्र विपर्यय अर्थात उलटा फल देखता हुआ धर्म करने में पीडिन होना है तो भी मन को अधर्म में न लगावे ॥१७१। इस लोक में अधर्म किया हुआ उसी ममयमें नही फलता जैसे पृथ्वी या गौ(उसी ममय फल नहीं देती) परन्तु धीरे २ फैलता हुआ अधर्म करने वाले की जड़े काट देता है ॥१७॥ यदि नात्मनि पुत्रेषु न चेत् पुत्रेषु नप्तुषु । न त्वेव तु कनोधर्मः ऋतुर्भवति निष्फलः ॥१७३॥ अधर्मेधते सावत्तनो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ॥१७॥ सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमेत्सदा । शिष्यांश्च शिष्याद्धर्मेण वाग्वादरसंयतः ॥१७॥ परित्यजेदर्थकामी यो स्यानां धर्मवर्जिती ।