पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२३९

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मनुस्मृति भाषानुवाद धर्म चाप्यसुखोदकं लोकविक्रष्टमेव च ॥१७६॥ किया हुआ अधर्म करने वाले को निष्फल नहीं होता किन्तु यदि तत्काल देह धर्मादि का नाश नहीं भी करे तो उसके पुत्र मे सफल होता है । यदि पुत्र मे न हो तो पौत्र में सफल होता है ॥१७३|| अधर्म से पहिले तो वढत्ता है, फिर कल्याणो को देखता है (अर्थात् नौकर चाकर गाय गोडा इत्यादि से सुख भी पाता है) और शत्रुओ को भी जीतता है परन्तु फिर (पापके परिपाकसमय) मूल सहित नष्ट हो जाता है ॥१७४|| सत्य धर्म सदाचार और शौच म मर्वदा प्रीति करे और धर्म से शिष्यों को शिक्षा देवे और वाणी बाहु उदर उनका संयम करे (अर्थात् सत्यभाषण, दूसरे को पीड़ा न देना और न्यायोपार्जित अन्न का भोजन ऐसे तीनों का संयम करे) ॥१७५।। धर्मरहित जो अर्थ और काम हो उनको त्याग दे (जैसे चारी से द्रव्योपार्जन और पर-स्त्री से गमन) और उत्तर काल मे दुःख का देने वाला और जिसमे लोगों को क्लेश हो ऐसा धर्म भी न करे जैसे पुत्र पौत्रादि के रहते सर्वस्व दान और पुण्य पर्म की सहायतार्थ भी किसी को अत्यन्त सताना) ॥१७६।। न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलोनजुः । न स्यावाक्चपलश्चैव न परद्रोहकर्मधीः ॥१७७॥ येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः। तेन पायात्सता मार्ग तेन गच्छन्न रिष्यते ॥१७८|| निष्प्रयोजना हाथ पैर वाणी से चन्चलता न करे, कुटिल न होवे और दूसरे को बुराई की बुद्धि (नियत) न करे ।।१७७ जिस मार्ग से इसके पिता पितामह चलते रहे हैं उसी सन्गार्ग मे चले - उस मे चलते की बुराई नहीं होती ॥१७८।।