पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२४०

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चतुर्थाऽध्याय २३७ ऋत्विकपुरोहिताचा मातुलातिथिसंश्रितैः । बालवृद्धातुरेवैज्ञातिसंवन्धिवान्धन ॥१७६॥ मातापितृभ्यां यामीमिात्रा पुत्रेण मार्यया । दुहिता ढासवर्गेण विवादं न समाचरेत् ॥१०॥ ऋमिज, पुरोहित, श्राचार्य माता अतिथि मिक्षकारियाल वृद्ध रोगी वैद्य, चाचा इत्यादि, साला इत्यादि और मां के पिता- नाना मामा आदि ॥१७९।। मां बाप बहन, या पुत्र वधू आदि, भ्राता पुत्र स्त्री लड़की और नौकरों से झगडा न करे ॥१८॥ एतैविवादासंत्यज्य सर्वपापैः प्रमुच्यते । एमिर्जितैश्च जयति सर्वांल्लोकानिमान्गृही ॥१८॥ आचार्या ब्रह्मलोकेरा प्राजापत्ये पिताप्रभुः । अतिथिस्विन्द्वलोकेशोदेवलोकस्यचत्विजः ॥१८॥ गृहस्थ इन (ऋत्विजाहि) के साथ विवाद को छोड़कर सत्र टन्टों से छूटा रहता है और इनके जीतने से इन सब संसारस्थ लोगों का जीत लेता है किन्तु जो घर में लड़ता है वह बाहर हारे ही गा) ॥१८॥ "प्राचार्य ब्रह्म = वेदलोक का स्वामी है (उसके सन्तुष्ट होने से वेद प्राप्त होता है) ऐसे ही प्रजापति लोक "पिता" स्वामी है और "अतिथि इन्द्रलोकका प्रमु है । देवलोक के प्रभु "ऋविज्" हैं इन्हीके अनुभहसे इनकी प्राप्ति होती है ।। (पिता उत्पादक होने से प्रजा का पति है। इन्द्र तत्व सम्बन्धिनी बुद्धिका उपदेशकहोने से अतिथि इन्द्रलोकेश कहा । ऋत्विज् यक्ष करा कर वायु आदि देव लोक की सदऽवस्था करते हैं) ।।१८।। जामयोप्सरसां लोके गैश्वदेवस्य बान्धवाः ।