पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२४२

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चतुर्थाऽध्याय = नष्ट हो जाता है ॥१८॥ न द्रव्याणामभिज्ञाय विधि धम्र्य प्रतिग्रहे । प्राज्ञः प्रतिग्रहं कुर्यादवसीदपि क्षुधा ॥१८७|| हिरवं भूमिमश्वंगाम वासस्ति लान्घृतम् । प्रतिगृहन्न विद्वांस्तु भस्मी भवति दारुवत् ॥१८८|| प्रतिग्रह में द्रव्यो की धर्मयुक्त विधि कोन जानकर धा से पाहेत हुवा भी बुद्धिमान प्रतिमह न लेवे ॥१८॥ अविधान वेदादि का न जानने वाला, सुवर्ण, भूमि, घोड़े गाय, वस्त्र अन्न, तिल, घृतादि का प्रतिप्रहण करता हुवा अग्नि संयोग से लकड़ी सा जल जाता है | हिरण्यमायुरन्न' च भूगौ वाप्योपतस्तनुस् । अश्वश्चक्षुस्त्वचं वासा धृतं तेजस्तिलाः प्रजाः ॥१८६।। अतपास्त्वनधीयानः प्रतिग्रहरुचिहिजः। अम्भस्य श्मप्लवेनैव सह तेनैव मन्जति ॥१६॥ सुवर्ण और अन्न आयु को जलाते हैं । मूमि और गाय शरीर को जलाती हैं । अश्व आंख को, वस्त्र त्वचा को, घृत तेज का और "तिल प्रजा को जलाते हैं । (अर्थात् इन के प्रतिग्रह का मुर्ख ले तो येर नष्ट होते है। सुषर्ण और भोजनका धान अन्नानी भागासक्त करके आयु नष्ट करता है। भूमि और गोदान अज्ञानी के मुफ्त के आकर देह क्षीण करते हैं क्योंकि वह मिथ्याहार विहार करता है। घोड़ा और आंख दोनो इन्द्रतत्व प्रधान हैं । वत्र और त्वचा शरीर को ढांपते हैं । घृत पृथा मानसे मिला हुवा तेज नहीं बढ़ावा, किन्तु मिथ्याप्रयुक्त हुवा तेज का नाश करता है। तिल मिध्या-