पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२४३

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२४० मनुस्मृति भाषानुवाद प्रयुक्त हो वीर्य को विगाड कर सन्तति में बाधक होते हैं) ।।१८९|| तप से शून्य और वेदादि जिसके पठित नहीं ऐसा प्रतिग्रह लेने की इञ्ला करने वाला द्विज पानी में पत्थर की नाव के समान उस प्रनिग्रह के साथ ही ड्व जाता है ।।१९०॥ तस्मादविद्वान्विभियाद्यस्मात्तस्मात्प्रतिग्रहाद । स्वल्पकेनाप्यऽविद्वान्हि पडू गौरिव सीदति।।१६१॥ नवार्यपि प्रयच्छेच डाल तिके द्विजे । में कवतिके विप्र नावेदविदि धर्मवित् ॥१२॥ इस लिये मूह एमे बैंस प्रतिमह से डरे। थोड़े प्रतिमह मे भी मूर्ख ऐसे फंस जाता है, जैसे कीचड में गौ ॥१९१।। धर्म का जानने वाला पूर्वोक्त बैडालनत वाले तथा बकनत वाले और वेद के न जानने याने विप्र वा द्विज नामधारीको जल भी न देवा१९२। त्रिष्वप्तेतेषु दत्त हि विधिनाप्यजितं धनम् । दातुर्मवन्यनर्थाय परवादातुरेव च ॥१६॥ यथाप्नवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन । तथा निमज्जतावस्तादज्ञी दातृप्रतीच्छकौ ॥१६॥ न्यायापार्जित भी धन इन तीनों को दिया हुवा देने वाले और लेने वाले को परलोक मे अनर्थ का हेतु होता है ॥१९३॥ जैसे पत्थर की नाव से तरता हुवा नीचे को डूबता है वैसे ही लेने और देने वाले दोनों अज्ञानी डूबते हैं । (दाता को इस कारण पाप है कि भूखों को देकर मूर्ख, संख्या की वृद्धि करता है और लेने वाला . मूर्ख जगत का उपकार नहीं कर सकता) ॥१९४|| धर्मवजी सदालन्धश्वानिको लोकदम्भकः ।