पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२४४

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चतुर्थाऽध्याय २४१ बैडालबत्तिको ज्ञेया हिंसः सर्वाभिसन्धकः ॥१९॥ अधोप्टिनै प्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः । शठो मिध्याविनीतश्च बकवतचरो द्विजः ॥१६॥ (जा लोगों में प्रसिद्धि के लिये धर्म करता है और आप भी कहता है वा दूसरों से प्रख्यान कराता है. वह) धर्मध्वजी और परधन की इच्छा वाला छली तथा लोगो में दम्भ फैलाने वाला, हिंसक स्वभाव वाला सबको बहका कर भड़काने याला, बिलाव जैमा व्रत धारण करने वाला ब्राह्मण क्षत्री वैश्य बैडालतिक मनुष्य जानिये । (इस से आगे चार पुस्तकों में यह श्लोक अधिक मिलता है.- यस्य धर्मध्वजो नित्यं सूरध्वज इवोच्छितः । प्रच्छिन्नानि च पापानि बैडालं नाम तद्वतम् ॥] जिस के धर्म का मएडा तो देवध्वजा साचा फहरावं, परन्तु पाप छिपे रहें। इस प्रत की "डाल" कहते हैं) ॥१९५।। नीचे दृष्टि रखने वाले कर्महीन, स्वार्थ साधनमे तत्पर, शठ और भूठा विनय करने वाले ब्रामण क्षत्रिय वैश्य को "वकवती" जानो ॥१९॥ ये वकवतिनो विप्रा ये च मारिलिजिनः । ते पतन्त्यन्यतामिन तेन पापेन कर्मणा ||१९७॥ न धर्मस्यापदेशेन पापं कृत्वा व्रतं चरेत् । व्रतेन पापं प्रच्छाय कुर्नन् स्त्रोद्रदम्भनम् ॥१६८।। जो वित्र वकवत और मार्जारस्वत बाले हैं वे उम पाप से