पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२४५

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मनुस्मृति भापानुवाद अन्धतामिस्र मे गिरते हैं।।१९७॥ पाप करके धर्म के बहाने (मिप) से व्रत न करे। (जैसा कि) व्रत से पाप को छिपाकर स्त्री और शूद्रो-मूखों को वहकाता हुवा (लाभी रहा करता है) ॥१९८॥ प्रत्येह वेशा विप्रा गान्ते ब्रह्मवादिभिः । छाना चरितं यच्च व्रतं रक्षांसि गच्छति ||१६|| अलिङ्गी लिहिवेपेण यो वृचिमुपजीवति । स लिङ्गिना हरत्येनस्तिन्योनौ च जायते ॥२००॥ परलोक में तथा इम लोकमे ऐसे विप्र ब्रह्मवादियो से निन्दित हैं । और छल से किया हुया प्रत राक्षसों को पहुंचता है ।।१९९।। जो अनामचारी आदि ब्रह्मचारी आदिका वेश धारण करके मिक्षा मागवा है वह ब्रह्मचारी आदि के पाप को आप लेता पार तिर्यक् योनि में जन्म पाता है ।।२००॥ परकीय निपानेषु न स्नायाच्च कदाचन । निपानकर्तुः स्नात्वातु दुष्कृतांशेन लिप्यते ॥२०१|| यानशय्यासनान्यस्य कूपोद्यानगृहाणि च । अदत्तान्युपभुजान एनसः स्यात् रीयमाक् ॥२०२॥ (यदि बनाने वाले ने परोपकार्थ न बनाया हो तो) दूसरे के पोखर (हौज) मे कभी स्नान न करे। उसमे स्नान करने से पोखर वालो का बुरा अंश लग जाता है ॥ (इसका तात्पर्य यह है कि जो किसीने नित्य अपने स्नान के निमित पोखर (हौज) बना रखा है उसमें कुछ तो नित्य एक ही मनुष्य के स्नान योग्य थोडे जल में उसके शारीरिक विकार सञ्चित रहते हैं वे अन्य के। स्नान करने से लग जाते हैं। कुछ उस के साथ मगड़ा लड़ाई