पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२४६

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चतुर्थाऽध्याय २४३ टण्टा होना भी संभव है। इसके आगे एक श्लोक ७ पुस्तकों में अधिक भी पाया जाता है- [सप्ताद्धत्य ततः पिण्डान्कामं स्नायाच्च पञ्च वा । उदपानात्स्वयं ग्राहाद्वहिः स्नात्वा न दुष्यति । यदि उस पोखरण में ७ था ५ (गार के) पिण्ड निकाल देवे तो स्वयं प्राह पोखर से बाहर स्नान चाहे करले टोप नहीं) २०१५ सवारी, शथ्या श्रासन कुवा, बगीचा घर. ये बिना दिय भाग करने वाला उसके स्वामी के चौथाई पाप का भागी होता है ॥२०॥ नदीपु देवखातेषु तडागेषु सरस्सु च । स्नानं समाचरेन्नित्यं गर्गप्रस्रवणेषु च ।।२०३॥ यमानसेवेत सततं न नित्यं नियमान् वृधः । यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान्वनामजन् ।।२०४॥ नी या देव(कुदरती) सरोवर या नालाय या मर या गड्ढे या भरने में सर्वदा लान किया करे ।।२०।। विद्वान् सर्वदा यमो का सेवनकरे न कि कंवल नियमाका । (हिमानकरना मत्यमापण चोरी न करना, ब्रह्मचर्य अपरित्रह ये ५ यम है । शौच सन्तोष तप स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान ये ५ नियम है । इनमें नियमा से यमाको प्रधानना है) जो यमो को न करता हुआ केवल नियमों को करता है वह गिर जाता है। (इन से आगे निम्नलिखित चार श्लोकों में से १ श्लोक १४ पुस्तकों में दूसरा ४ पुस्तकों में तीसरा ११ पुस्तकों और चौथा ४ पुस्तकों में अधिक पाया जाता है- पानशंस्यं क्षमा सत्यमहिमा दनमस्पृहा । -