पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२४८

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चतुर्थाऽध्याय २४५ मत्ता द्धातुराणां च न भुञ्जीत कदाचन । केशकीटावपन्न च पदास्पृष्टं च कामतः ॥२०७। प्रसन्नावेक्षितं चैव संस्पृष्टमेव चाप्युदक्यया । पतत्रिणावली च शुना संस्पृष्टमेव च ॥२०॥ उन्मत्त, क्रोधी, रोगीका अन्न तथा केश वा कीड़ो (कं मिलने) से दुष्ट हुआ और इच्छा से पर लगाया अन्न कमी भोजन न करें २०७|| भ्रणहत्यारों का देखा हुआ रजस्वला का क्या हुआ कौवा आदि पक्षियों का चाटा और कुत्ते का छा हुआ भी (अन भोजन न करे) ॥२० गवा चान्नमुपनातं घुमानच विशेषतः । गवान गणिकान च विदुषां च जुगुप्सितम् ॥२०॥ स्तेनगायकवाश्चानं तश्योपाधू पिकस्य च । दीक्षितस्य कदर्यस्य बद्धस्य निगडस्य च ॥२१॥ गौ का मू'घा हुभा और विशेष घोटा(पिचोला)हुआ या कोई है जो ले और खावेश ऐसे पुकार कर दिया हुआ समुदाय का अन्न नथा वेश्या का अन्न और विद्वानों का निन्दित (पेसे अन्न का भी भोजन न करें)।२०९॥ चार, गवैया तजत्ति-बढ़ई वि-ध्याज का उपजीवन करने वाले कृपण तथा बन्युवे का (अन्न भोजन न करे) ॥२१॥ अभिशस्तस्य पण्ढस्य पुंश्चन्या दाभिमकस्य च । शुक्त पर्य पितं चैव शूद्रस्याच्छिष्टमेव च ॥२११॥ चिकित्सकस्य मृगयाः क्र गस्याच्छिष्टमाजिनः । ।