पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२५०

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• चतुर्थाऽध्याय आयु: धोवी. रहरेज निर्दयी और जिसके मकानमे जार हो (अर्थात जिस की स्त्री व्यभिचारणी हो).उसका (अन्न भोजन न करें) ।।२१।। मृप्यन्ति ये चापपात स्त्रीजितानाच सर्वशः । अनिर्दशं च तान्नमतुष्टिकरमेव च ॥२१७॥ राजान तेज आदचे शूद्वान ब्रह्मवर्चसम् । सुवर्णकारान्न यशश्चमाकर्तिनः ।।२१८|| (जा घर में) स्त्री के जार का (जानकर) सहन करते हैं उनका और जो सब प्रकार स्त्री के आधीन है उनका. दशाहके भीतर जो सूतकान है वह और वृमि का न करने वाला अन्न (भाजन न करें) IR१५॥ राजा का अन्न तेज को और शद्र का अन्न ब्रह्म सम्बन्धी तेज को स्वर्णकार का अन्न आयु को और चमार का अन्न यश को ले जाता है ।।२१८॥ कारुकानं प्रजा हन्तिवलंनिणंजकस्य च । गणान्नं गणिकान्नं च लोकेभ्यः परिकृन्तति ॥२१६|| पूर्यचिकित्सकस्यान्न पुरचल्पास्वन्न मेन्द्रियम् । विष्टानाधु विक्रस्यान्न शस्त्रविक्रयिणोमलम् ॥२२०॥ बढ़ई का अन्न सन्तति का नाश करता है। धावीका बल नाश और समुदाय तथा गणिका का अन्न लोको का नाश करता (अप्रतिष्ठित है) ।।२१९॥ वैद्य का अन्न पीक के समान है और वेश्या का अन्न इन्द्रिय सम है तथा व्याजवृद्धिजीवी का अन्न विष्टा और शस्त्र बेचने वालेका अन्न (शरीरके) मैलके समान है ।।२२०।। य एतेऽन्येवमोज्यानाः क्रमशः परिकीर्शिताः। तेषांत्वगस्थिरोमाणिवदन्त्यन्नं मनीपिणः ॥२२१||