पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२५१

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२४८ मनुस्मृति मापनुवाद भुक्तवातेाऽन्यतमस्यान्नममत्या क्षपणं व्यहम् । मत्या भुक्त्वाचरेत्कृच्छ्रेताविएसूत्रमेव च ।।२२२॥ ये और दूसरे कि जिन के अन्न क्रम में भोजन करने योग्य नहीं उनके अन्न को मनीपी लोग त्वचा, हड्डी, रोम के समान कहते हैं। ( इस में आगे दो पुस्तकों में यह श्लोक अधिक पाया जाता है :- [अमृतं ब्राह्मणस्यान्नं क्षत्रियान्नं पयः स्मृतम् । वैश्यान्नमममित्याहुः शूद्रस्य रुधिरं स्मृतम् ।।] ब्रामण का अन्न अमृत, क्षत्रिय का दूध वैश्य का अन्न अन्न और शुद्र का रुधिर के समान है। इसी से हम का यह शङ्का होती है कि अन्य श्लोक भी जो भिन्न र अन्नोंको मिन्न र निन्दनीय उपमा देते हैं, कदाचित् पीछे ही से निन्दार्थवाद के लिये बढ़ाय गये है। परन्तु आशय कुछ बुरा नहीं ) २२१|| इन में से किसी का अन्न बिना जाने भाजन करे तो तीन दिन उपवास प्रायश्चित्त करे और जान कर भोजन करे तो कृच्छ व्रत करें। ऐसे ही बिना जाने वीर्य मल मूत्र के भक्षण में भी (कृच्छ व्रत करे) ॥२२॥ नाधाच्छूद्रस्य पक्वान्नं विद्वानऽद्धिनोद्विजः । श्राददीताममेवास्मादवृत्तावेकरात्रिकम् ॥२२३|| श्रोत्रियस्य कदर्यस्य वदान्यस्य च वाधुः । मीमांसित्वामयं देवाः सममनमकल्पयन् ॥२२४॥ विद्वान् ब्राह्मण श्रद्धासे शून्य शूद्र का पक्वान्न भोजन न करे। परतु विना लिये काम न चले तो कच्चा अन्न एक दिन के