पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२५२

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तृतीयाऽध्याय निर्वाह मात्र ले लेबे (नन्दन टीकाकार ने “अद्धिनः" पाठ माना है और उत्तम भी यही है। तथा सब से प्राचीन भाज्यकार मेधातिथि ने भी इस पाठान्तर का वर्णन किया है। और अगले श्लोक में श्रद्धा की प्रधानता का वर्णन है। सर्वज नारावण भाष्यकार भी श्रद्धा अर्थ करते हैं। नन्दन टीकाकार यह भी कहते है कि श्रद्धा रहित शूद्र का पान न खावे , इस कहने से श्रद्धालु शूट का पक्वान प्राह समझना चाहिये । इस से आगे एक श्लोक १ पुस्तक में और रामचन्द्र की टीका में जो सव से नवीन है पाया जाता है :- चन्द्रसूर्यग्रहेनाबादधात्स्नात्वा तु मुक्तयोः । अमुक्तयोरगतयोरधाच्चैव परेऽहनि । चन्द्र सूर्य के ग्रहण मे भोजन न करे। जब प्रहण होकर (चन्द्र और सूर्य ) मुक्त हो जावे, स्नान करके भोजन करें। यदि बिना मुक्त हुवे छिप जावें तो अगले दिन भोजन करे। यह लीला ग्रहण में भोजन न करने की चाल को पुष्ट करने के लिये की गई जान पड़ती है ) ||२२३॥ कृपण श्रोत्रिय और बुद्धिजीवी दावा, इन दोनोंक गुण दोपोको विचार कर देवता लोग दोनोंके अन्नों को समान कहते थे। इस पर देखा सम्बन्ध अध्याय ३ श्लोक २८४ की व्याख्या। (२०५ से २२४ तक जिन जिन के अन्न अभक्ष्य कहे है उन में कारणों से दोप हैं। कहीं तो अन्न मे दोप की सम्भावना है। कहीं अन्न वाले की वृत्ति वा जीविका निन्दित है। कहीं उस का अन्न खाने में अपने ऊपर उस का दवाव रहना अनुचित है। कुछ कुछ अत्युक्ति भी है। कई जगह नवीन श्लोक भी मिलाये गये हैं