पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२५० मनुस्मृति मापानुवार जो सब पुरतकों मे नही पाये जाते | कही २ उस उस का अा. खान से अपने गौरव =बडप्पन का नाश है। कहीं अवेदवित् के कराये वेदविरुद्ध यन्त्र की निगर्थ ही उस यनका अन्न वर्जित है। कही कच्चे अन्न मे न्यून विकार और पक्के मे अधिक विकार पा संसर्ग देोप लगना कारण है। कही अपनी उच्चता की रक्षामात्र ही तात्पर्य है । और जो र यहां गिनाये हैं उनके अतिरिक्त भी जहां २ हानि का कारण उपस्थित हो, वहा का अन्न त्याज्य और जो त्याज्य गिनाये हैं उन मे हानि की सम्भावना न होने पाह्य समझना चाहिये । कारण को प्रधान समझना बुद्धिमानों का काम है । यह भोजन (न्याता जीमन ) का बहुत प्रपञ्च इस लिये कहा है कि जो पुरुप अत्यन्त शुद्ध पवित्र धर्मात्मा आमा की उन्नति का चाहने वाला द्विजोत्तम है, उसे सूक्ष्म से सूक्ष्म भी कोई बुराई न लगने पावे । राजा के अन्न त्याग का तात्पर्य अपने से अति अधिक प्रभुता रखने वाले मात्र के अन्न का त्याग है । उस के भोजन से अपना महत्व घटता है। महत्त्व और तेज के घटने से धर्म कर्म का उत्साह भी कम हो जाता है। शूद्र के अन्न से नीचपन आकर उत्तमता घटती है। स्वर्ण की चारी महापातक है और सुनार प्राय. उसे कर सकते हैं। इस से उस का अन्न दुराचार प्रवत्त क होने से आयु का नाशक है। बढई प्रायः हरे वृक्षों को भी लाभ से काटते हैं। उनके अन्न से सन्तति पर प्रभाव पड़ना सम्भव है। धावी कपड़े के और अपने वल का घटाने वाला है । समुदाय और वेश्या से वृथागत धन बहुत मिलना सम्भव है। उस से जैसे शहद की लामिनी मक्खी उड़ती नहीं, मर रहती है, वैसे फंसना सम्म्भव है। चिकित्सक धीर फाड़ करने वाले वैद्य की वृत्ति निघृण हो जाती है । व्याज बाला वृद्धि ही प्रतिक्षण शोचता है। शस्त्र बेचने वाला एक कर जीविका