पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२५४

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। चतुर्थाऽध्याय करता है। इत्यादि कारण स्वयं विचाणीय हैं ) ॥२४॥ तान्प्रजापतिराहैत्यमाकृन विपमं ममम् । श्रद्धापूतं वदान्यस्य हतमश्रद्धयेतरत् ।।२२५॥ श्रद्धेयेष्टं च पूर्त च नित्यं कुर्यादतन्द्रितः । श्रद्धाकते क्षये त भवतः स्वागतर्धनः ॥२६॥ ब्रह्मा उन दवता क पास आकर बोले कि तुम लोग विषम को सम. मन, करी । क्योकि वृद्धि जीबी दाता का अन्न श्रद्धा से पवित्र होता है और कृपण श्रोत्रिय का अश्रद्धा से अपवित्र (सम नई) शेता है ।।२२५|| श्रद्धा से यज्ञादि और कूप तड़ागादि को आलस्वरहित होकर सर्वदा बन्यो । न्यायाजित धना से श्रद्धा से किये हुवे ये कम अक्षय फल देते हैं ॥२२॥ दानधर्म नियेत नित्यप्टिकपातिकम् । परितुष्टेन भावेन पात्रमासाध शक्तितः ॥२२७॥ यत्किचिदाप दातव्यं याचितेनाऽनुसूयया । उत्पत्स्यते हि तत्पात्रं यचारगति सर्वतः ॥२२८॥ अानन्द से युक्त होकर योग्य पात्र को पाकर यथाशक्ति यज्ञादि और फूपतड़ागादि दान धर्मों का सदा करे। (२२७ से आगे केवल एक पुस्तक मे ये दो, श्लोक अधिक पाये जाते हैं:- [पात्रभूताहि यो विप्रः प्रतिगृह्य प्रतिग्रहम् । असत्सुविनियुञ्जीत तस्मै देयं न किञ्चिन ।। संचयं कुरुते यस्ः प्रतिगृह्यसमन्ततः ।