पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२५८

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चतुर्याऽध्याय न पुत्रदारं न ज्ञातिधर्मस्तिष्ठति केवलः ॥२३॥ एका प्रजायते जन्तुरेक एव प्रली ते। एकोनमुड़क्त सुकनमेक एर च दुष्कृतम् ॥२५॥ परलोक में सहाय के लिये मां बार नहीं रहने न पुत्र न स्त्री, केवल एक धर्मरहता है ।।२३९।। अकेला हीजीव उत्पन्नहोता है और अकेला ही मरता है। अकेला ही सुकत को और अकेला हो दुष्कृत को भोगता है ।२४॥ मृतं शरीरमुत्सृज्य काठशोष्टसमं बिनौ। विमुखा शान्धवा थान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ॥२४१॥ तस्माद्ध सहायार्थ नित्यं संचिनुयाच्छनः । धर्मेण हि सहायेन नमस्तरति दुस्तरम् ॥२४२॥ लकड़ी और ढेला सा मृतक शरीर का भूमि पर छोड़ कर बान्धव पीछे लौट जाते हैं ( उस मरे के पीछे कोई नही जावा) धर्म उस के पोछे जाता है ।।२४।। इस कारण धर्मका सहायता के लिये सर्वदा धीरे २ सञ्चित करे क्योकि धर्म ही की सहायता से अति कठिन दुःख से करता है ।।२४२॥ धर्मप्रधानं पुरुष तपसा तपसा हतकिल्बिषम् । परलोकं नयत्याशु मास्वन्तं खशीरिणम् ॥२४॥ उत्चमैरुचमैनित्यं संपन्धानाचरेत्सह । निनीपुः कुलमुत्कर्षमधमानधमांस्त्यजेत् ॥२४॥ तप से नष्ट हुवा है पाप जिसका ऐसे धर्मपरायण प्रकाशयुक्त मुतवल्प पुरुष को (धर्म) शी मोक्षधाम को लेजाता है ।।२४।।