पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२६५

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भूगुम् ॥१॥ ोरम अथ पञ्चमोऽध्यायः 'श्रुत्वैतानृपयोधर्मान्स्नातकस्य यथो दिवान् । इदमूचुर्महात्मानमनजामत्र एवं यथोक्तं विप्राणां स्वधर्ममनुतिष्ठताम् । कथं मृत्युः प्रभवति वेदशास्त्रविदां प्रभो ! ॥२॥ "ऋषि लोग स्नातकके यथोक्त धर्म सुनकर महात्मा अग्निवंशी स्शु के प्रति यह वचन बोले ॥२॥ (कि) हे प्रभु जो ब्राह्मण स्वधर्म करते और वेद शास्त्र के जानने वाले हैं ऐसे विप्रो की (काल) मृत्यु कैसे हो जाती है ॥ "सतानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः । अयतां येन दोपेण मृत्युर्विप्राविघांसति ॥३॥" अनम्यासेन वेदा नामाचारस्य च वर्जनात् । आलस्यादन्नदोषाञ्च मृत्युर्विप्राजिवांसति ॥४॥ 'मनुवंशी भृगु जी उन महर्षियोंके प्रति बोले कि सुनिये जिस आपसे मृत्यु (अकाल में) विनों को मारना चाहता है ।। (इन श्लोकों से यह स्पष्ट पाया जाता है कि इनका को मनु नहीं है, न भृगु किन्तु किसी ने 'विप्राजिघांसति" इन चतुर्थ श्लोक में आये पड़ों की सगति मिलाकर ये श्लोक बना दिये है) ॥शा वेदों के अनभ्यास और प्रचार के छोड़ने तथा सत्कों मे बालस्य करने और शेन के क्षेप से (अकाल) मृत्यु वित्रों मारना चाहता है (भागे अन्न दोष बताते हैं)॥४॥