पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२६९

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२६६ मनुस्मृति भाषानुवाद : अर्थात् शिष्टो के प्रयुक्त अनेकार्थवाचक एक शब्द के प्रयोग मे अर्थ अधिकार प्रकरण शास्त्र के संप्रदाय और तर्क विमाग कर के काम मलावे। सो यहां लशुन शब्द के भिन्न २ प्रयोग से ओर ब्रह्मचय के प्रकरण से ब्रह्मचर्यनाशक शलगम का अर्थ ही गृजन शब्द से ग्राह्य है वा गोलोमी का किन्तु गाजर का नहीं ॥५॥ रक्तवर्ण वृक्षों के गोद और वृक्षों के छेदने से जो रस निकलता है वह तथा लिसोड़ा लभेदा और नवीन व्याई हुई गाय का दूध (पेवसी) यत्न से छोड़ देवे ॥६॥ 'वृथा कृसरसंयावं पायसापूअमेव च । अनुपाकृतमांसानि देवान्नानि पीषि च ॥णा अनिशाया गाः चीरमोस्ट्रमकाफ तथा । अविसापनीतीर विवसायाश्च गोः पयः॥८।। "(तिल चावल मिलाकर पकाया) सरसंयाव लपसी वा खीर तथा माज पूना ये सब वृथा पक्कान (अर्थात् बिना वैश्वदेव) और बलि विना मांस और हवन के परोडाशों को (न भक्षण करें)"। जब कि वलिवैश्वदेवादि न करके भोजनमात्र ही पूर्व निपिद्ध कर आये तब तिल चावल लपसी पूडे मांस हत्य आदि के गिनाने की क्या आवश्यकता है क्या अन्य वातु खाने पकाने में वैश्व- देवादि आवश्यक नहीं ? यह मांसाहारियों की लीला प्रक्षित है। एक पुस्तकमे 'पूपमेव च-धूपशकुली"पाठभेदभी है) 1॥७॥ १०निन तक प्रसूता गौ का दूध ऊंटनी का घोड़ी आदि एक खुर वाली का और भेड़ का ऋतुमती का तथा जिसका बच्चा मर गया हो उस गौ का दूध (त्याग देवे । इससे आगे १ पुस्तकमें यह श्लोक अधिक पाया जाता है:-