पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२७०

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पंचमोऽध्याय २६७ , [चीराण यान्यभक्ष्याणि तद्विकाराशने बुधः । सम्पराबवत न्यात्प्रयत्लेन समाहितः ॥] जो दूध अभक्ष्य हैं उनकी बनी वस्तु खा लेवे तो जानने पर एकामता से यत्नपूर्वक ७ रात्रि का व्रत करे) 11८ भारण्याना च सर्वेषा मृगाणां महे विना । स्त्री चार चैत्र वज्योन सर्व शुक्तानि चैवहि ॥६॥ दधिभन्यं च शुक्तेष सर्व च दघिसंभवम् । यानि चैत्रामिपूयन्ते पुप्पभूलफशः शुभैः ॥१०॥ मैंस को छोड़कर, वन में रहने वाले सव मृगों का दुग्ध और निज स्त्री का दुग्ध तथा वहुत समय के खट्टे हुवे सब पदार्थ भी न खाने पीवे ॥९॥ खड़े हुवे द्रव्यों में दही मदहा और जो दही में बन पकौड़ी आदि तथा उत्तम पुम, मूल फल के संधान से जो पदार्थ (श्रचार यादि) बनते हैं वे भक्षण थाग्य है)। (इन भक्ष्यों में कोई दुर्गन्ध युक्त कोई शलगम आदि कामो- तेजक होकर विपयी बना केवल वीर्य नाशक काई तमोगुणी बुद्धि नाशक है। और यदि कहीं म्लेशादि अभक्ष्यभक्षियों की दीर्घ आयु और फलागि शुद्ध सात्विकादि खाने वालों की भी अल्प आयु देखते हैं वह अन्य कारणों से हो नी माती है ॥१०॥ क्रव्यादाञ्छकुनान्सो स्तथा गामनिवासिनः । अनिर्दिष्टांपैकशफानिटि म च विवर्जयेत् ॥११॥ कलबिडप्लवं हसं चक्राई प्रामकुक्कुटम् । सारसं रज्जुवाले च दात्यूह शुः गारिक ॥१२॥