पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२७५

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७२ मनुस्मृति भाषानुवाद अहस्ताश्च सहस्वाना शूराणां चैव मीरवः ॥२९॥ नाना दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यान्यपि । घाव पाह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तारण्व च ॥३॥ चर जीवो के अचर (घास आदि) और दैष्ट्रियो के अदंष्ट्र (व्याघ्रादि के हरिणादि) और हाथ वालो के बिना हाथ वाले (मनुष्यों के मछली आदि ) और शो के डरपोक ऐसे एक का एकभोजन बनाया है ।।२९॥ भक्षणयाग्यो को भक्षण करते हुवे खाने वाले को दोप नहीं लगता क्यों कि विधाता न ही भोजन और भोजन करने वालो को उत्पन्न किया है ( यू तो चोरो और धनियों को भी विधाता न ही बनाया है तो क्या चोरी पाप नही ? )|३०|| "यत्राय जग्धिर्मासस्येत्येप वोविधि स्मृतः । अतोन्यथाप्रवृत्तिस्तु राक्षसा विधिगच्यते ॥३१॥ क्रीत्वा स्वयंचाप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा । देवान्पितृ श्चालित्वा खादन्मासं न दुप्यति ॥३२॥" 'यज्ञक निमित मांस भक्षण करना देवविधि है और इसके सिवाय मासभक्षण राक्षमविधि कही है ।।३१|| मोल लेकर अंथवा आपही मार कर या दूसरे किसी न लाकर दिया हो उसको देवता और पितरो का चढाकर खानेसे दोप नहीं । (४ पुस्तकोंमे परोप- हृतम् पाउ है । मनु तो ११ वें अध्याय में इसे रिशाचादि का भक्ष्य कहेगे ॥२॥ नाद्यादविधिना मांस विधिनो-नापदि द्विज-- जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेत्य तैरयतेवऽश. ॥३॥ न वादश भवत्यनो मृगहन्तुर्धनार्थिन । याश भवति प्रेत्य वृथा मासानि खादत ॥३४॥ .