पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२७७

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मनुस्मृति भाषानुवाद मारने की इच्छा न करे (धन्य !! आटा वा घृत भी पशु के डाकारला बनाकर मचता है ।" इसीसे कोईर गुम वाममार्गी वाब- भीरु यन्त्र में भी आटे वा घृत के पशु बनाया करते थे यह प्रसिद्ध है ) ॥३७॥ विना देवता के उमेश जोपरा मारता है वह मरने पर जितने पशु के रोम है उतने ही जन्मो तक अन्यो से मारा जाता है (हमारी सम्मति में तो देवता का नाम न लेकर खाने वाले पापी इतने वदिया कलही नहीं हैं जितने ये हैं । ५ पुस्तकों में "कृत्वेह पाठ भद है ) ॥२८॥ “यज्ञार्थ पशव सृष्टा स्वयमेव म्धयंभुवा । यन्नस्य भूत्यै सर्वस्य तम्माद्यज्ञ वोऽवधः ॥३९॥ ओषध्य पशवो वृक्षास्तियश्च पक्षिणस्तथा । मार्थ निधन प्राप्ता. प्राप्नुवन्युत्सृती पुन ॥४०॥" "ब्रह्मा ने स्वय ही मव यज्ञ की सिद्धि वृद्धि के अर्थ पश बनाये है इसलिये यशमे पशु वध नहीं है (८ पुस्तकोमे "यहो स्व पाठ है ) ॥३॥ ओषधि पशु वृक्ष कूर्मादि और पक्षी, यज्ञ के थे मारे जावे तो उत्तम योनि को प्राप्त होते हैं ॥४॥ "मधुपके च यज्ञ च पितृदेवतकर्मणि । अव पशवो हिम्या नान्योत्पत्रवीन्मनु ॥४शा एप्वर्थेषु पशून हिंसन्वेदतत्त्वार्थविद् द्विज । आत्मानं च पशु चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ॥४२॥" मधुपर्क यज्ञ और श्राद्ध तथा देवकर्म इन मे ही पशु वध करे अन्यत्र नहीं करे, “यह मनु ने कहाहै (जी हां आपके भी हत्य मे सन्देह है कि कदाचित् कोई इस को मनु वाक्य न समझे । चोर की दादी मे तिनका)शावेद का तत्वार्थ जानने वाला द्विज इन्हीं मधुरादि में पशुहिसा करता हुवा श्राप और पशु दोनो +