पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२७८

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पंचमोऽध्याय २७५ को उत्तम गति प्राप्त कराता है । (तो पहले अपने पुत्रादि का भेट चढ़ा कर उत्तम गति क्यो न दिखलाई जाये ? २६ से ४२ तक १७ श्लोक निकाल कर २५३ से ४३३ को मिला कर पदिये तो प्रकरण ठीक मिन जाताहै ओर उन पांमको विनिक मनु मिनाने चालेने ऐसी अविश्वासे मिलाया है कि एकही बात (चाहादि न कर के मांस नखाने) अनेकवार पिष्टपेषण करताही जाताहै। यह मास भक्षण किसी कर्ममे मनुका संमत नहीं है. इसका निव मनुने स्वयं इसी अध्यायके ४३३ से ५५वे तक १३ श्लोकों में बडे वनपूर्वक किया है और ब्यौरवार इस की बुराई घिनौनापन दृस्तिता एब पापता सब बतलाई हैं वे बुराइ यन्त्र में कैसे दूर हो सकती है। मनु जव मास को राक्षसादि का भाजन मानते हैं। तो देव कार्य मे कैसे माहा हो सकता है। ये श्लोक अवश्य प्रक्षिप्त है जैसा कि महाभारत मोक्ष धर्म पर्व में कहा है कि- मकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनु नत्रीत् । कामकाराद्विहिंसन्ति बहिवद्या पशमगः ।। धर्मात्मा मनु ने सबका (वश्यदेवाडि) में अहिंसा ही कही थी परन्तु अपनी इच्छा से शास्त्रबाह्य यज्ञ वेदी पर लोग पशुओं को मारते है ॥४२॥ गृहे गुरावरगो वा नियमन्त्रात्मवान्दिनः। नावेठबिहतां हिंसामायद्यपि ममाचरेत् ॥४३॥ या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे। अहिंसामेव तां विद्याद्व दामो हि निर्वभौ ॥४४॥ गृहस्थाश्रम या ब्रह्मचर्याश्रम वा वानप्रस्थाश्रम में रहता हुआ जितेन्द्रिय द्विज अशास्त्रोक्त हिंसा आपत्काल मे भी न करे ॥४॥