पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२७९

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$ २७६ मनुस्मृति भाषानुवाद . इस जगत में जो वेदविहित हिंसा चराचर में नियत है, उस के अहिंसा ही जाने (हिंसक मनुष्या सिह सर्पादि के दण्ड से तात्पर्य है। इसी को अगले श्लोक मे अहिसकों के निषेध से स्पष्ट किया है। क्योकि वेद से धर्म का ही प्रकाश हुआ है ॥४४॥ योऽहिंसकानिभूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया । स जीवंध मृतश्चैव न क्वचिप्सुखमेधते ॥४॥ यो पन्धनवधक्जेशान्प्राणिनां न चिकीहि । स सर्वस्य हितमप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते ॥४६॥ जो पहिसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह पुरुष इस लोक मे जीवता और परलोक में मर कर सुख नहीं पाता ॥४ा जो पुरुष प्राणियों को वांधने वा मारनेका क्लेश दना नहीं चाहता, वह सबके हितको इच्छा करनेवाला अनन्त सुख को प्राप्त होता है ॥४॥ यद्ध्यायति यत्कुरुते पति पनाति यत्र च । तदवाप्नोत्ययलेन यो हिनस्ति न किंचन ॥४७॥ नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणियधः स्वय॑स्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥४८॥ वह जो कुछ सोचता है जो कुछ करता है और जिस में धृति बांधता है, वह सब उसे सहज मे प्राप्त हो जाता है जो कि किसी को नहीं मारता ||४ा प्राणियों की हिसा किये बिना मांस कभी उत्पन्न नहीं हो सकता और प्राणियों का वध स्वर्ग का देने वाला नहीं, अतः मांस को वर्ज देवे ॥४॥ समुत्पत्रिं च मांसस्य वधवन्धौ च देहिनाम् ।