पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचमोऽध्याय २४७ . असमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमासस्य भक्षणाद ॥४६॥ न भक्षयति यो मांसं विधि हित्या पिशाचवत् । सलोके प्रियतांयाति व्याधिमिश्च न पीडयते ॥५०॥ मांस की (घिनौने शुक्र शोणितसे) उत्पत्ति और प्राणियोके वध और बन्धन (क्रूर फो) को देख कर सब प्रकार के मांस भक्षय से बचे ।। ४९ ॥ जो विधि छोड़ कर पिशाचवत् मास भक्षण नहीं करता वह लोगो में पारा होता और रोगों से कभी पीड़ित नहीं होना (इससे मांस भक्षण रोगकारक भी समझना चाहिये और प्रत्यक्ष जब से मांस भक्षणानि दुराचार फैले है तब से रोग भी अधिक देखे जाते हैं ) Pell अनुमन्ता विसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्का चोपहनां च खादकग्वेति घातका॥५१॥ "स्वमासं परमासन यो वर्षयितुमिच्छति । अनभ्यर्थ्य पितृन्देवास्ततोऽन्य, नास्त्यमुश्यकृत् ॥९२|| १-जिसकी सम्मति से मारते हैं,२-जो अङ्गो को काट कर अलग अलग करता है ३-मारने वाला-खरीदने वाला ५-येचने वाला ६ पकाने वाला, ७-परोसने वाला तथा ८-खाने वाला ये ८ घातक हैं ।।५१॥ "देव और पितरोऊ पूजन बिना ना पराये मांग से अपना मांस बढ़ाने की इच्छा करताहै उससे बढ़कर कोई पाप करने वाला नहीं ॥५२॥ वर्षे वपेंश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। मांसानि च न सादेवस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥५३।। फलमूलाशनमध्येसुन्यन्नानां च भोजनैः ।