पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२८१

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२७८ मनुस्मृति मापानुवार न तत्फलमवाप्नोति यन्मांमपरिचर्जनात् ॥५४॥ जो मी वर्ष तक प्रति वर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो जन्म पर्यन्त माग्न भक्षण नहीं करता दोगो का पुण्यफल ममान है ॥५३॥ । (५३ वे से भाग ३ पुस्तकों में यह श्लोक अधिक देवा 1 - [सदा जयति यज्ञन सदा दानानि गच्छति । म तपस्वी सदा विप्रो यश्च मां विजेयत् ] || अर्थात् जो बामण माम नहीं म्याता वह मानी मन्ना यन करना और दान देना है, तपस्वी है ) || पवित्र फल मूल के भोजन और मुनियों क अन्न म्याने में वह फल नहीं जो माम छाइन से प्राप्त होता है ||५|| 'मा स भक्षयिनाऽमुत्र यम्य मांसमिहात्म्यहम् । गतन्मामम्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीपिण. १९५|| "न मांसभक्षण दोपो न मय, न च मैथुने । प्रवृत्तिरेपा भूताना निवृत्तिन्तु महाफला 1॥५॥" इम लाक मे जिम का मांस मै खाता है परलोक में (मां म.) यह मुझे खायगा। विद्वान् लोग यह मामका मानव कहते हैं ।।१५।। भास भक्षण और मद्यपान क्या मैथुन में मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, इस लिने इस में दाप नहीं और इन को छोड़ देव तो वडा पुण्य है ॥ (स्वाभाविक बच्चे का तो माम में धिन होती है। तथा यह श्लोक निषेध के प्रकरण में अनुचित भी स्पष्ट है । कोई लोग खेचातानी से कई अर्थ करते हैं परन्तु वे अक्षरार्थ और ध्वन्यय से बाहर हैं। यद्यपि ये १३ श्लोक ४३ से ५५ तक मास भक्षण निषेध विषयक धर्मशास्त्र के सिद्धान्तानुकूल होने से हम