पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२८२

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पंचमोऽध्याय का सभी मान्य है, परन्तु इन में से ५३ ॥ ५४ १५५ चे श्लोको की शैली नवीन मी है और मा मन्देह होता है कि ये श्लोक तय मांसनिपवा मिनाये गये हैं जबकि मांस विवान कलाक मिलाये जा चुके थे ) ||१६|| प्रवद्धि प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धि तथैव च । चतुर्णामपि वर्णानां यथावदनुसूशिः ॥५७। दन्तजातेऽनुजाते च कृतचूड़े च मंस्थिते । अशुदा गान्धवाः सा के च तयांच्यने ।। अब चारो वणों की यथावत् क्रम में प्रेतद्धि और द्रव्य शुद्धि आगे कहूंगा ।।१७।। दांत निकलने पर ही वा हात निकलने अनन्तर और चूडाकर होने पर मरने में सब बान्धीको अशुद्धि और सूतक लगता है ।।५८॥ दशाह शावमाशीचं सपिण्डेषु विधीयते । अक्सिंचयनादानां व्यहमेकाहमेव च ॥५६॥ सपिण्डना तु पुरुपे सप्तमे विनिवर्तते । समानाइकमावस्तु जन्मनाम्नोग्वेदने ॥६॥ सरिपडों में मृतक का आशौच दश दिन रहता है किन्ही को अन्थिसञ्चयन तक, किन्हीं का ३ दिन और किन्ही को १ दिन ही (इम में ज्ञान और प्राचार की न्यूनाबिकना ही कारण है। जो गुणों से जितना हीन हो उतना ही उसे सूतक अधिक होता है। जैसे १।२।३ दिन बढ़ाये है और सर्वगुणों से रहित हो तो १० दिन आशीच होता है ) ॥ ५९॥ सातवी पीढी में सपिण्डना का सम्बन्ध जाता है और कुल में उत्पन्न हुवों के