पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२८३

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मनुस्मृति भाषानुवाद नाम जन्मभी स्मरण न रहे तब ममानोदकता छूट जानी है || यथेदं शावमाशीचं सपिण्डेषु विधीयते । जननेऽप्येवमेव स्यानिपुणं शुद्धिमिच्छताम् ॥६१॥ जैसा मरन म सपिण्डो को यह श्राशौच कहा है, जैसे ही पुत्रादि उत्पन्न होने में भी अच्छी शुद्धता की इच्छा करने वालों को (आशौच ) होता है। (३१ मे से आगे ४ पुस्तकों में यह श्लोक अधिक है:- [ उभयत्र दशाहानि कुलस्यान न भुज्यते । दानं प्रनिग्रहोयज्ञः स्वाध्यायश्च निवर्चत ] ।। जन्म और मृत्यु दोनो में १० दिन नक कुश का प्रश्न भोजन नहीं किया जाता। दना, लेना यज्ञ और बाध्याय के रहते हैं। इस प्रकरण में सपिण्ड शब्द से किसी को मृतक श्राद्ध का भ्रम हो किन्तु शरीर का नाम पिण्ड है। मात पीढ़ी तक पूर्वज के वीर्य से थोड़ा बहुत प्रभाव सन्तानों में चलता है इसके पश्चात् श्लोक ६० के अनुसार पिण्डता नहीं रहती। और जो जिसको जब तक जानता रहे कि अमुकनामा पुरुप हमारे वंश मे था उस की सन्तान तब तक आपस मे श्लोक ६० के उत्तरार्धानुसार समानादक होती है ॥६ सर्वेषां शाक्माशौचं मातापित्रोस्तु सूतकम । सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः ॥६२|| सूतनिमित्त आशौच सब सपिण्डो को और जन्मनिमित्त आशौच माता पिता को ही रहता है। उसमे भी पिता स्नान करने से शुद्ध हो जाता है, मावा को ही सूतक रहता है ।