पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२८४

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पंचमोऽध्याय २८१ (६२वे से आगे भी ४ पुस्तकोंमें यह श्लोक अधिक प्रतिमहै:- [सत्रधर्मप्रवृत्तस्य दानधर्मफलैपिणः । ताधर्मापरोधार्थमारण्यस्यैतदुच्यते ॥ जो ज्ञानयज्ञ में प्रवृत्त है और दान धर्म का फल चाहता है, त्रेतायुग के धर्म (ज्ञान) के अनुरोधार्थ उस वानप्रस्थ के लिये यह विधान है। इस पर सब से अन्तिम रामचन्द्र ने भाष्य किया है। अन्य किसी ने नहीं) ॥६॥ 'निरस्य तु पुमान् शुक्रमुपस्पश्यैव शुद्धयति । वैजिकादभिसंबन्धाटनुरुध्यादऽ श्यहम् ।।६।। अहा चैकैन राण्या च त्रिरात्ररेव च मिभिः । शवस्पृशो विशुध्यन्ति व्यहादुदकदायिनः ॥६४॥ "पुरुष अपने वीर्य को निकालकर स्नानमात्र से शुद्ध होता है और पराई भार्याम पुत्र उत्पन्न करनेसे तीनदिन प्राशौच रहताहै। (६३५ श्लोक भी प्रक्षिप्त जान पड़ता है। एक तो सूतक मृतक के बीच में वीर्य निकालने की अशुद्धि का वर्णन मनु की इस प्रतिज्ञा के विरुद्ध है जो ५७ वे श्लोक में की गई है। दूसरे परस्त्री प्रसङ्ग वा उसके सन्तानोत्पादनरूप पाप पर केवल ३ दिन का प्रायश्चित मात्र भी सब धर्मशास्त्र के प्रतिकूल और अन्याय है। किसी पुस्तक मे १३ से आगे भी यह श्लोक अधिक है.. जननेयेवमेव स्यान्मातापित्रोस्तु व्रतकम् । सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः ॥ जन्म में भी ऐसे ही माता पिता को सूतक लगता है कि माना को ही सूक्षक और पिना स्नान करके शुद्ध है) ॥६॥ मृतक के