पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२८७

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मनुस्मृति भाषानुवाद अथवा जिसके दांत ही उत्पन्न हुवे हो वा नामकरण ही हुवा हे। उसके दाहादि संस्कार करे तो अच्छा है (यह दूसरा पक्ष है)।७०|| सब्रह्मचारिण्येकाहमतीते क्षपणं स्मृतम् । । जन्मन्येकादकाना तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते ॥७१|| "स्त्रीणामसंस्कृताना तु घ्यहाच्छ्वन्ति वान्धवाः । यथोकनेव कल्पेन शुद्धयन्ति तु सनामयः ।।७२।।" महाध्यायी के मरनेमे एक दिन आशौच कहा है और समान- दकों के पुत्रादि जन्मे तो तीन दिन में शुद्धि चाही है ||१ 'जिन स्त्रियो का संस्कार नहीं हुआ उन के मरने में उनके घान्धव और उनके सनामि भी तीसरे दिन शुद्ध होते हैं"। (७२३ से आगे एक पुस्तक मे यह श्लोक अधिक है जो कि ६७ वें के आगे दिखाये ३ अधिक श्लोकों में से तीसरे प्रक्षिप्त के सा आशय रखता है, परन्तु चतुर्थ पाद उसके ठीक विरुद्ध है:- [परपूर्वासु पुत्रेषु सूतके मृतकेषु च । मातामहे त्रिरात्रं स्यादेकाहं तु सपिण्डने । पूर्वली पराई स्त्रियो मे, उन के जन्म तथा मृत्यु और नाना के मृतक मे ३ दिन मे शुद्धि होती है। परन्तु सपिण्डों में १ रात्रि में ही) ||२|| "अक्षारलवणनाः स्युनिमज्जेयुश्च व्यहम् । मांसाशनं च नाश्नीयुः शयीरंश्च पृथक् क्षितौ ||७||" "क्षारलवणरहित अन्न का भोजन करें. तीन दिन स्नान करें, मांस भक्षण न करें और भूमि पर अकेले सावें । (७२वे से अगला श्लोक तो एक ही पुस्तक में मिलता है. सव मे नहीं। परन्तु ७२ वो और ७३ वां भी प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्यो कि