पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२८८

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पंचमोऽध्याय २८५ असंस्कृत स्त्रियों का अशीच जब पुरुषों के समान है तो पृथग्वि- धान व्यर्थ है। और जो लोग मगाई मात्र का अर्थ करते हैं सो धर्मशास्त्रों में सगाई कोई संम्कार १६ संन्कारी में से नहीं है। ७३ व में ३दिन स्तानविधान कहना असङ्गत है। क्यों कि आशौच १० दिन और स्नान ३ दिन कैसा? जब कि बिना मूतक मृतक भी नित्य शरीर शुद्धिकरण है। मान का निषेध भी व्यर्थ है. जब कि सब काल में ही मांस निषिद्ध है! 4 वें श्लोक से यह प्रेतशुद्धि का वर्णन आरम्म हुआ है। जिस के साथ कहीं २ अन्म शुद्धि को भी कहने जाते हैं यथार्थ में जन्म और मृत्यु । संमार में बड़ी घटना है। उन से बढ़ कर कई घटना नहीं। जिन में एक हर्प और दूसरी शोक का कारण सर्वसाधारण के लिये होती है। जन्म समय १० मास का रुका मल जिम,घर में निक- लता है और वायु तथा अन्य घर के पदार्थों पर अपना प्रभाव डालता है, कुटुम्बी लोग तो हानि लाम के साथी साझी हैं, उन्हें संसर्ग से बचना कठिन है। परन्तु अन्य वर्ण, पास पड़ौमी आदि को स्वामाविक रीति पर कुछ पिन अवश्य उम'घर के पनायों से होती है। इस लिये अपवित्रता के परिमाण से न्यूनाविक यथा- सम्भव सूतक लगाया गया है। ऐसे ही मृतक भी। अग्नि सूर्य काल, वायु आदि पदार्य उस अशुद्धि को श्रम से घटाने हैं। (देखा १०५) और लीपने पोतने, पाने मांजन आदि से भी कम पूर्वक शुद्धि होती है । इस लिये जितना र सम्बन्ध समीप है वा जिवना २ जस जिस वर्ण आश्रम आदि के विचार से जिस को अधिक संसर्ग सम्भव देखा, उस २ को अधिक म्यूतक मृतक का आशीच विधान किया है। मृतक आशौच में मरने वालेकी आयु की न्यूनाधिकता से बान्धवादि के संसर्ग में भी न्यूनाविकता देख कर आशौच की न्यूनाधिकत कथन की गई है। एक बात अधिक